मन सोचता है .....MAN SOCHTA HAI......
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पुकारती है ये धरा , आतंकवाद नष्ट हो ..
आदमी की आदमीयत , अब तो जा स्पष्ट हो .
पुकारती है ये धरा
रोजी, रोटी धर्म के लिये तू कर रहा ये काज …
पर गरीब की रोजी को तूने , बम बना दिया है आज…
अधर्म है ये धर्म नहीं , इतना तो तू जान ले
इक गरीब की बेबसी का ना तू इम्तेहान ले
जो लगी गरीब की बद्दुआ, समूल तेरा नष्ट हो
आदमी की आदमीयत, अब तो जा स्पष्ट हो…..
सुन रे ओ आतंकवादी , तेरे भी तो होगी माँ..
उस के भी कुछ सपने होंगे, जानता नहीं तू क्या..
किसलिए तू कर रहा है , दूसरों पे अत्याचार..
तेरे अपने कर रहे हैं, तेरे घर पे इंतजार….
तो कदमों को तू मोड़ ले., चाहे थोड़ा कष्ट हो…
आदमी की आदमीयत अब तो जा स्पष्ट हो..
पुकारती है ये धरा , आतंकवाद नष्ट हो…
आदमी की आदमीयत ,अब तो जा स्पष्ट हो…
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