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किसे था इन्तज़ार इस फ़ैसले का,
मुझे या तुझे या इस करोड़ों की भीड़ को
इस भीड़ के एक-एक शख्स की नब्ज़ तो नहीं पहचानता मैं
पर बिना आहट के जो सुगबुहाट है
उसे मैं तो क्या हर शख्स महसूस करता है.
मुझे ना मिला एक भी शख्स
जो कर रहा है अनवरत इंतजार
क्या मुवक्किल क्या मुलज़िम
और करोड़ों में कोई दो-चार इंतजार करते भी मिले
तो निहायत ही गैर जरूरी
वाकयात को सपनो में संजोए हुए
दो पीढी हजारों लाशों की गवाह
लोग भूल चुके हैं घावों को
क्यों इन्हें हरा किया जाये
कल तेरे आने से होना भी क्या है
और आज ना आकर भी तूने क्या हासिल कर लिया है
इस उहापोह की रात बड़ी स्याही है
इधर कुआँ तो उधर खाई है
बंजर, वीरान पथरीली जमीन के टुकड़े को जीतकर
क्या कर हासिल कर लेगा कोई
और जीत का जश्न ना मना
इसे कितना ही उर्वरा बना
यह इतने खूनों से रंगी है
इसमें बीज न पनपेगा कोई.
हाँ, कुछ की रोज़ी मारी जायेगी
इतना पका-पकाया सियासत का भोग
हाथ से ना जाने देंगे ये लोग
इसलिए फैसले का इंतजार नहीं
डर है फैसले के आने का
जमे-जमाये बाजारखाने का
सदियों से जंग ज़मीन की
अब कुछ नया नहीं,
पर
लाखों फैसले रुके पड़े है
करोड़ों की किस्मत के
उनका अंतहीन इंतजार
क्या इस फ़ैसले से खत्म होगा?
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